Wednesday, May 2, 2018

क्या तीखी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता के चलते हमारी आलोचनात्मक समझदारी कमतर हो रही है ?

दिन बुधवार, देश भर के तमाम राष्ट्रीय चैनल आसाराम केस के फैसले को लेकर आतुर थे. ट्वीटर के टॉप पांच ट्रेंड में आसाराम अलग-अलग हैशटैग के साथ ट्रेंड कर रहे थे. दोपहर तक़रीबन दो बजे बाद ख़बर फ़्लैश होती है कि नाबालिग संग रेप के मामले में आसाराम पर फैसला आया है, उन्हें उम्रकैद की सजा हुई और बाकि तीन दोषियों को बीस-बीस साल की सजा हुई है. इसके बाद शुरू होती है सोशल मीडिया पर अलग-अलग विचारों की अलग-अलग ढंग से अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएं. कांग्रेस के आधिकारिक ट्वीटर हैंडल से एक व्यंगात्मक वीडियो आसाराम और प्रधानमंत्री का डाला जाता है. आसाराम के साथ प्रधानमंत्री और अन्य भाजपा नेताओं की तस्वीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट होने लगती हैं. 
फ़रहान अख़्तर का ट्वीट और आलोचनात्मक समझदारी का सवाल :
अभी मामला चल ही रहा होता है कि अभिनेता फ़रहान अख़्तर एक ट्वीट करते हैं. ट्वीट के अनुसार, 'आसाराम एक नाबालिग का बलात्कार करने वाला अपराधी है. और इस मामले में उसे दोषी करार पाया गया. अच्छा हुआ. लेकिन लोगों को अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आसाराम की तस्वीरों को शेयर करना बंद कर देना चाहिए. अपराधी साबित होने से पहले उसके साथ एक मंच शेयर करना कोई अपराध नहीं कहलाएगा. कृपया निष्पक्ष रहें और यह समझने की कोशिश करें कि हमारी तरह उन्हें भी पहले इस बारे में पता नहीं था.' 
जाहिर है आम जनमानस के बीच फ़रहान अख़्तर के बारे में जो वैचारिक धारणा है वह इस ट्वीट से एकदम विपरीत है. ऐसे में इस ट्वीट को समर्थक और आलोचक अपने अपने तरीक़े से परिभाषित करेंगे लेकिन समर्थन और आलोचना से इतर यदि इस ट्वीट के अर्थ तलाशे तो यह ट्वीट लोकतांत्रिक व्यवस्था में आलोचनात्मक समझदारी को लेकर गंभीर सवालिया निशान खड़े करता है.
क्या लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात कहने की आज़ादी ज़िम्मेदारी विहीन होती है? क्या आलोचनात्मक रवैया मानवीय आचरण से परे होता है? क्या राजनैतिक हितों की लड़ाई में हर विषय का लाभानुकूल होना ही अनिवार्य है? क्या राजनैतिक स्वीकार्यता के लिए कोई स्थान नहीं बचा है? और क्या राजनैतिक प्रतिद्वंदिता व्यक्तिगत हो चली है? जाहिर है ये वो तमाम सवाल हैं जिसके जवाब हम सभी को हमारी ही व्यवस्था के भीतर तलाशने होंगे. लेकिन इसके साथ हम सभी को यह भी जानना होगा आखिर ये सब जाने-अनजाने कब और कैसे शुरू हुआ.
2014 लोकसभा चुनावों के बाद भारतीय राजनीती में दक्षिणपंथ निर्णायक भूमिका में आने लगा. नरेंद्र मोदी की राजनीतिक हैसियत के चलते दक्षिणपंथ और राष्ट्रवादियों को भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में समर्थन मिलने लगा. साथ ही नरेंद्र मोदी की कट्टर वैचारिक दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी छवि और कई अन्य घटनाओं के चलते भारतीय राजनीती में प्रतिद्वंदिता केवल राजनैतिक न होकर वैचारिक भी हो गयी.भारतीय बौद्धिक वर्ग स्पष्ट रूप से विभाजित हो गया. ऐसे में कई ऐसे विषय आए जिन पर सभी को सामूहिक एकमत होना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं  पाया . ऐसे में राजनैतिक प्रतिद्वंदिता दिन-प्रतिदिन तीखी होने लगी और यही से आलोचना विषयों और मुद्दों से हटकर व्यक्तिगत हो गयी और जिसका जिक्र गाहे -बगाहे फ़रहान अख्तर के ट्वीट में दिखा.
किसी भी मजबूत लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बुनियाद ही आपसी स्वीकार्यता पर खड़ी है. आप भले ही किसी से इत्तेफाक मत रखिये लेकिन धारणा के आधार पर अगर किसी का मूल्यांकन होता रहेगा, तो वह प्रतिक्रियावादी बनेगा जिसकी परिणिति केवल राजनैतिक न होकर व्यक्तिगत प्रतिद्वंदिता में होगी जिसका प्रभाव हर पक्ष पर पड़ेगा और यही से आलोचनात्मक समझदारी का कमतर होना शुरू होगा.

Tuesday, April 3, 2018

‌पहले दिल्ली और अब मुंबई ! मुल्क के नौजवान आंदोलन की राह पकड़ने को मजबूर क्यों है ?

‌पहले दिल्ली और अब मुंबई ! एसएससी के छात्रों के बाद मुंबई में अप्रेंटिस छात्रों ने स्थाई
नौकरी की मांग करते हुए , रेल रोको आंदोलन किया । चूंकि छात्रों ने मुंबई महानगर की
लाइफलाइन समझे जाने वाली लोकल ट्रेनों को रोका , तो सरकार ने परिणामों की गंभीरता
भांपते हुए , छात्रों की मांगे मान ली । देर - सवेर ही सही लेकिन अब यह सवाल गाहे -
बगाहे उठने लगा है कि जिन नौजवानों ने नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री भवन से
निकाल कर , दिल्ली के सत्ता के गलियारों में काबिज़ करा , वही नौजवान आज अच्छे दिनों
की सरकार के खिलाफ़ सड़कों पर उतरने को , क्यों आमदा है ?

नौजवान हिंदुस्तान , उम्मीदें ‘ मोदी ‘ !
इस सवाल को खड़ा किया है हिंदुस्तान की मुल्क के रूप में बदलती पहचान ने । देश की
आबादी में आज जँहा नौजवानों का हिस्सा 65 फीसदी हो चुका है , तो वहीं सूचना क्रांति
आज समूची दुनिया को ग्लोबल बाजार में तब्दील कर रही है , ऐसे में डिजिटल की डिजिटो
की सुई में ख़्वाब बुनती हिंदुस्तान की इस युवा पीढ़ी को अपनी आशाओं और उम्मीदों का
मसीहा मजबूत नेतृत्व के रूप में नरेंद्र मोदी में नजर आता है . हाल ही की एक अंग्रेजी
अखबार की रिपोर्ट प्रकाशित हुई , जिसमे युवा बेरोजगारों की संख्या 31 मिलियन पार होने
की बात कही गयी । ऐसे में इस प्रकार के आंदोलनों का उभार होना लाज़मी है जो नरेंद्र मोदी
सरकार से व्यापक परिणामो की उम्मीद लगाए बैठे है .

रोजगार संबंधी योजनाओं और नीतियों का कमतर पड़ना :
ऐसा नहीं है कि सरकार ने रोजगार को लेकर योजना और कार्यक्रम नहीं बनाये . स्किल इंडिया
, स्टार्टअप इंडिया , स्टैंड अप इंडिया , मुद्रा लोन सरीख़ी तमाम योजना सरकार लेकर आयी
लेकिन तेजी से बढ़ती युवा आबादी के लिए ये सभी कार्यक्रम अपर्याप्त नज़र आते है . इसके
अलावा सरकारी नौकरियों की मनोदशा रखने वाले युवा वर्ग के लिए पारदर्शी प्रणाली तैयार
करना भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है . यह सही है की बेरोजगारी का समाधान यह
कतई नहीं की सरकार सभी को रोजगार दे और खासकर तब जब भारत दुनिया के तीन
सबसे बड़ी जीडीपी वाली अर्थव्यवस्था में से एक हो , लेकिन रोजगार को लेकर नीतिगत स्तर
पर जिन प्रभावशाली कार्यक्रमों की जरूरत है चाहे वो प्राइवेट सेक्टर के माध्यम से हो या
सरकारी क्षेत्र के माध्यम से उसमे सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है .

और अंत में : आंदोलनों ही सरकारों पर दबाव डालते है
बीते चार बरस गुजर जाने के साथ ही उम्मीदें और तेज गति के साथ बड़ी है .
लोकतंत्र सरीखी व्यवस्था में मतदाता का वोट ही सबसे बड़ा पावर बटन होता है
ऐसे में मतदाताई लोकतंत्र में 38 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाला नौजवान
वोटर किसी भी सरकार के लिए सबसे बड़े दबावों में से एक है . और इस दबाव
को बनाने का जो सबसे कारगर तरीका है , वो है आंदोलन ! उम्मीदों की नाव की
जो पतवार नौजवानों ने नरेंद्र मोदी को थमाई है उसे पूरा करवाने के लिए अब
आंदोलन ही एकमात्र जरिया बचा है और नौजवानो ने अब उसी राह को पकड़
लिया है

Thursday, January 4, 2018

गोपालदास नीरज के दस दोहे : जो संजीदगी का एहसास कराते है

कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे औरदेखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा जैसे मशहूर फ़िल्मी गीत लिखने वाले गोपालदास नीरज का आज जन्मदिन है।  मेरा नाम जोकर , प्रेम पुजारी जैसी फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले नीरज हिंदी के प्रसिद्ध कवि है।  

1. आत्मा के सौंदर्य का , शब्द रूप है काव्य 
    मानव होना भाग्य है , कवि होना सौभाग्य। 

2. दौड़े थोड़ी दूर तक ज्यों मोटर संग श्वान 
    प्रगतिशीलता की रही यही यहाँ पहचान। 

3 . नेताओ के पास है , बस ये दो ही काम 
     मंदिर में काटे सुबह  मैखाने में श्याम। 

4. हिन्द - पाक सम्बन्ध में संभव नहीं सुधार 
    उसका मजहब है घृणा , अपना मजहब प्यार 

5 . किया विदेशों ने यँहा जितना अधिक  निवेश
    उतना ही होता गया निर्धन अपना देश 

6. राजनीती ये वोट की , ये कुर्सी की चाह 
    कर देगी निश्चित हमें , ये एक रोज तबाह 

7 . यार पूछ मत आजकल करते क्या अख़बार 
     आग लगी थी , जंहा वो बरसते जलधार 

8 . विज्ञापन ने है रचा ऐसा मायाजाल 
      हम साड़ी के दाम में , करते क्रय रुमाल 

9 . अपना देश महान है , इसका क्या है अर्थ 
     आरक्षण है चार के , मगर एक ही बर्थ 

10 . राजनीती के खेल में ये समझ सका है कौन 
       बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फ़ोन    

2018 : भारत के सामाजिक - आर्थिक ढांचे के लिए चुनौती और अवसरों वाला साल

वर्ष 2017 गुजर चुका  है । नोटबंदी और जीएसटी जैसे  बड़े आर्थिक परिवर्तनों के चलते बाजार में छाई सुस्ती के  कारण यह साल निराशा भरा  था  . बढ़ती बेरोजगारी  अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी  चुनौती बन कर उभरी।  शहरी और ग्रामीण अर्थव्यस्था की दौड़ में विकास असंतुलित दिखाई दिया   ।  देश में बढ़ती हिंसा की घटनााओं ने भारत के सामजिक ढांचे को चरमराया। कला और सिनेमा से जुड़े  विवाद ने प्रगतिशील समाज की धारणा को अवरोध कर दिया। लेकिन सामाजिक और आर्थिक ढांचे पर लगातार जूझते भारत  के लिए साल 2017 के अंतिम कुछ महीने बड़ी  घटनाओं के दौर से गुजरे  ।
सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश इंटरनेट जनरेशन में तब्दील होने की कगार पर  है। जिओ की सफलता ने देश के मिज़ाज़ को धार दी। ऊर्जा से भरी महत्वकांशी युवा आबादी अपेक्षाओं से भरी दिखाई दी। अश्व्मेघ के रथ पर सवार ब्रांड मोदी का गुजरात मॉडल गुजरात में ही देश के लोकतंत्र के आगे नतमस्तक हुआ। विराट -अनुष्का विवाह साल के अंतिम दौर में देश को आनंदित कर गया। कुल मिलाकर निराशा के बीच छिपी आशा का संकेत साल 2017 जाते - जाते देकर गया है। 
वर्ष 2018 की बुनियाद साल 2017 के इसी संकेत पर टिकी है।  ये साल चुनौतियों और अवसरों से भरा वर्ष है। जीएसटी लागू होने के बाद राजस्व बढ़ने की सरकार की अपेक्षा पूरी नहीं हो पायी। कम राजस्व के कारण केंद्र सरकार को जीएसटी प्रावधान के चलते राज्य सरकार को इसकी भरपाई करनी पड़ेगी।  सरकार का राजकोषीय घाटा पहले ही 112 फीसदी पर पहुँच गया  है।  सरकार अब 50,000 करोड़ का कर्ज लेने वाली है। राजकोषीय घाटा बढ़ने के कारण सरकार अपने खर्चो को कम करने का प्रयास करेगी जिसका सीधा असर नये रोजगारों और आधारभूत ढांचे के विकास पर पड़ने वाला है। बड़े आर्थिक परिवर्तनों के चलते भारत का आद्यौगिक जगत धीमा हो गया है जिसके चलते वह नए रोजगार बड़ी मात्रा में उत्पन नहीं कर पा रहा है साथ ही पहले  से चल रहे रोजगारों पर  भी संकट दिखाई दे रहा है।  ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकास की मुख्यधारा में शामिल करना और कृषि क्षेत्र को उसका उचित मूल्य उपलब्ध करवाना देश के एक बड़े वर्ग के हिसाब से बड़ी चुनौती है। पिछले कुछ महीनों में लगातार बढ़ती हिंसा की घटनाओं ने भारत की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद पर टिके सामजिक ढाँचे को भी प्रभावित किया है। 
इन सब चुनौतियो के बीच में दुनिया का सबसे जवान हो रहा देश i (इंटरनेट ) क्रांति की नई दांस्ता लिखने के लिए उत्साहित है।  आर्थिक समृद्धि पाने को बेताब और दुनिया की नज़रे अपने और टिकाने की चाह में भारत की युवा पीढ़ी बेक़रार है। ट्विटर और फेसबुक के जरिये देश की युवा पीढ़ी  राजनैतिक - सामजिक बहस का  नया नैरेटिव गढ़ा रही  है।  डेटा रेवोलुशन , यंग इंटरप्रेन्योर , स्टार्टअप  जैसे शब्दों का जमाना है।  दुनिया के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक भारत ग्लोबल इकॉनमी में खुद को खड़ा करना चाह रहा है। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा स्मार्टफोन मार्केट बन कर भारत ने डिजिटल इंफ़्रा के अपने इरादे जाहिर कर दिए है। सामजिक गतिविधियों से सरोकार रखकर यह युवा जमाना अपनी सामजिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा रहा है।
2018 का साल इन्ही चुनौतियों और अवसरों से भरा साल रहने वाला है। नये रोजगार , ग्रामीण अर्थव्यवस्था , आधारभूत ढाँचे का विकास और मजबूत सामजिक ढाँचा जैसी बड़ी चुनौतियों जंहा देश के सामने होगी  वही इंटरनेट के घोड़े पर दौड़ती देश की युवा पीढ़ी ग्लोबल इकॉनमी में हिंदुस्तान को खड़ा करने के अवसर तलाश रही है । 

Friday, December 1, 2017

क्या वाकई यूपी निकाय चुनावों में भाजपा ने बड़ी जीत दर्ज करी है ?

उत्तरप्रदेश निकाय चुनावो के परिणाम घोषित हो चुके है।  16  में से 14 नगर निगमों में भारतीय जनता पार्टी के महापौर चुने गए है। इसके आधार पर कहा जा रहा है यूपी निकाय चुनावों भाजपा ने बड़ी जीत दर्ज करी है।आइये इसको समझने की कोशिश करते है।

(फोटो- द क्विंट )
                                                                                             

निकाय का मतलब केवल नगर निगम नहीं  :
निकाय में केवल नगर निगम नहीं आती। निकाय में  नगर निगम के अलावा नगर पालिका परिषद और नगर पंचायत भी शामिल होते है। उत्तरप्रदेश में कुल 75 जिले है। इसमें  कुल निकायों की संख्या 652 है।  इसमें से 16 नगर निगम , 198 नगर पालिका परिषद्  और 438 नगर पंचायते  है। 

किसने किस निकाय में कितनी सीटे जीती  :
                           
                         नगर निगम    नगर पालिका परिषद्    नगर पंचायत   कुल सीटे 
भाजपा                     14                   70                       100            184 
सपा                          0                   45                         83             128
बसपा                       02                  29                         45               76 
कांग्रेस                     0                   09                         17               26 
अन्य दल एवं               0                   45                        193            238 
निर्दलीय 
                                                                                                 (आंकड़े : चुनाव आयोग)

उत्तरप्रदेश के कुल 652 निकायों में से 238 पर अन्य दल एवं निर्दलीय , 184 पर भाजपा , 128 पर सपा , 76 पर बसपा , 26 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज करी है। 

लोकसभा और विधानसभा के मुकाबले भाजपा ने निकाय चुनावों में उत्तरप्रदेश में कितने % सीटे जीती  :

                           कुल सीटें                  जीती हुई सीटें                     जीती हुई सीटें  का %
लोकसभा                    80                    71 (केवल भाजपा )                89 % लगभग 

विधानसभा                  403                 312   (केवल भाजपा )             77 % लगभग 

निकाय                      652                  184 (केवल भाजपा )               28 % लगभग 

लोकसभा और  विधानसभा  जंहा भाजपा ने क्रमशः लगभग 89 % और 77 % सीटों पर जीत दर्ज करी ,वंही निकाय चुनावों में भाजपा 28 % सीटों  पर ही जीत दर्ज कर पायी। 








Friday, November 17, 2017

साहित्य आजतक : आँखों देखी ।


स्मॉग और प्रदूषण को लेकर देश की राजधानी दिल्ली जब सुर्खियों में थी , ठीक उसी समय इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र में , आजतक के कार्यक्रम 'साहित्य आजतक' का आयोजन हो रहा था। 



प्रवेश सम्बंधित तमाम जरुरी औपचारिकता को करने के बाद , अंदर प्रवेश करते ही चारो तरफ साहित्य जगत से जुड़े लोकप्रिय लोगो के बैनर टंगे हुए दिखाई पड़े  । गुलजार साहब और कुमार विश्वास के  कटआउट्स को देखकर ऐसा लग रहा था मानों वो उन लोगो को सीधे चुनौती है जिन्हे बाजार के दौर में भाषाई तौर पर हिंदी और उर्दू साहित्य कम कीमत का नज़र आता है। 


आयोजन स्थल को बड़े ही कलात्मक ढंग से सजा - संवार कर उकेरा गया था। आयोजन में आने वाले अतिथियों की  लम्बी फेरिस्त यह बयां करने के लिए काफी थी की  साहित्य और कला के हर दौर और हर विधा से जुडी शख़्सियत यंहा मौजूद होगी । शाम का सूरज ढलने लगा था और भीड़ की चहक कदमी बढ़ रही थी। ये आयोजन का दूसरा दिन था।  मुख्य मंच पर राजस्थानी लोक कलाकार माामे खान के 'पधारो म्हारे देश' की आवाज गूँज रही थी। लग रहा था की जैसे रेतीला राजस्थान दिल्ली के लुटियंस में उतर आया हो।पास ही एक दूसरी जगह पर अंजना ओम कश्यप के साथ मनोज तिवारी की भोजपुरी में बातचीत चल रही थी।जिया हो बिहार के लाला गाते ही उठे शोर ने दिल्ली में रहने वाले पूर्वांचल की दमदार मौजूदगी का अहसास करा दिया। लोक भाषाओं से जुड़े इन सत्रों से इतर स्टेज नंबर दो पर स्टैंडअप कॉमेडियन नितिन गुप्ता और मिमक्री स्टार श्याम रंगीला का सेशन शुरू हो चूका था। राजनीतिक आलोचना को कला किस तरह अभिव्यक्त कर जनमानस तक पहुँचाती है वो इन दो युवा कॉमेडियनस ने बेहतरीन तरीके से किया । इस पूरे आयोजन को देखकर लग रहा था की मानों हिंदुस्तान का बिखरा हुआ साहित्य और बिखरी हुई कला का अतीत और वर्तमान एक साथ एक जगह पर आ गया हो। अगले दिन सुबह पीयूष मिश्रा का कार्यक्रम था। नौजवानों की भीड़ पीयूष को सुनने के लिए दीवानी थी। ' इक बगल में चाँद होगा 'को जैसे ही पीयूष ने गुनगुनाया तो नौजवानों की आवाजो  के शोर ने बता दिया उनका रॉकस्टार कौन है। मैदान में अरविन्द गौड़ के निर्देशन में 'दस्तक' नाटक का मंचन हो रहा था।लाड़ली लड़कियों का हाल बयां करता ये नाटक हर एक देखने वाले की आँखों में आंसूओ का समंदर उमड़ा गया। सूरज की धुप का इंतजार करते - करते बारह बज चुके थे।खाने के स्टालों पर बढ़ती भीड़ लोगो के इरादे इजहार करने लगी थी। दिन भर के अलग - अलग सत्रों के बाद एक बड़ा ही रोचक सत्र था अंडरवर्ल्ड की कहानियाँ। लगा जैसे कोई क्राइम थ्रिलर होगा। पूर्व पुलिस कमिशनर नीरज कुमार और हुसैन जैदी ने दाऊद के किस्सों को जिस तरह बयां किया उसे सुनते हुए अहसास हुआ जैसे तीन घंटे की कोई फिल्म देख रहे है। बहरहाल साहित्य आजतक अपने अंतिम दौर में पहुँच चूका था। चेतन भगत के साथ पुण्य प्रसून वाजपेयी का सेशन था। स्टेज नंबर दो लबालब भरा चूका था। चेतन भगत ने पुण्य प्रसून वाजपेयी के तीखो सवालों के जवाब देते हुए अपने इरादे जाहिर करते हुए समझाया  की किस तरह वो आज के दौर में गंभीर बात मनोरंजन के जरिये कहने की कोशिश कर रहे है। लगभग ख़त्म होने के दौर में  पहुँच चूका साहित्य आजतक का आयोजन वंहा ठहरी हुई भीड़ के साहित्य और कला के प्रति लगाव को स्पष्ट रूप से दिखा रहा था। साहित्य आजतक जैसे आयोजन भले ही बाजार के दौर से गुजर रहे हो  मगर  ऐसे आयोजन साहित्य और कला प्रेमी लोगो को वो जगह मुहैया करवा रहे है जिसकी कमी अक्सर हर कोई अपनी निजी ज़िंदगी में आज के समय में महसूस करता है। साहित्य के लोकप्रिय चेहरों के जरिये साहित्य को लोकप्रिय बनाने की यह कवायद लगातर दूसरे साल भी जारी रही है और उम्मीद है आगे भी जारी रहेगी। 

Sunday, November 5, 2017

हमारे यँहा चुनावी वादे ठीक ऐसे ही होते है जैसे यँहा नौजवानों को ' मायुष ' न होने का वादा किया जा रहा है 😅😅

   

   

इज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस रैंकिंग : सरकार आकंड़ो से चौसर पर शह - मात दे रही है

अर्थव्यवस्था में मंदी के दौर पर चल रही बहस के दौरान , जब वर्ल्ड बैंक ने "किसी देश में व्यापर करना कितना आसान है" इस पर अपनी रिपोर्ट में , भारत की रैंकिंग को 130 से 100 किया , तो चौतरफा आलोचना झेल रही सरकार को , राहत की साँस महसूस हुई। सरकार के नुमांइदों ने तुरंत इसका धन्यवाद प्रधानमंत्री को समर्पित करते हुए , अर्थव्यवस्था की बहस में अपनी अप्रत्यक्ष जीत घोषित कर दी।  वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग का 130 से 100 पर पहुंचना , आश्चर्यजनक जरुर है , वो भी ऐसे समय में जब भारतीय अर्थव्यवस्था में नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो बड़े आर्थिक परिवर्तन हुए हो , और  बाजार और रोजगार की हकीकत वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के एकदम विपरीत लगती हो, मगर रिपोर्ट वर्ल्ड बैंक की है इसलिए इस पर सवाल उठाना इतना आसान नहीं था । लेकिन इस बात को समझना बेहद जरुरी है की आखिर ये कमाल हुआ कैसे ?
इज ऑफ डूइंग बिज़नेस रिपोर्ट बनाते समय वर्ल्ड बैंक के कुछ पैमाने है , जिसमे वो किसी भी उद्योग के लिए बुनियादी इंफ़्रा से सम्बंधित चीज़ो को आधार बनाता है। भारत ने इसमें दस में से छः चीज़ो पर अपनी रैंकिंग ठीक करी है , जबकि बाकि चार पर या तो वो पहले जैसी है या उसमे गिरावट है , लेकिन इन चार के आधार पर बाकि छः में सुधार को कमतर करके नहीं आंका जा सकता। वर्ल्ड बैंक अपनी रिपोर्ट बनाते समय किसी भी देश के एक शहर को आधार बनाता है , चूँकि भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई को कहा जाता है , इसलिए अब तक वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट बनाते समय मुंबई को आधार बनाता था। इस बार भारत सरकार ने वर्ल्ड बैंक को मुंबई के साथ दिल्ली को भी शामिल करने के लिए कहा, जिसे वर्ल्ड बैंक ने मान लिया। तकनीकी रूप से यह बात सही लगती है की मुंबई के साथ दिल्ली भी व्यापार का केंद्र है इसलिए इसको शामिल करना गलत नहीं है लेकिन साथ में यह भी समझना पड़ेगा की दिल्ली में सारे उद्योग नहीं लगते।  अधिकतर उद्योग एनसीआर में लगते है जिनमे नोएडा , गाज़ियाबाद , गुडगाँव , फरीदाबाद जैसे अन्य राज्यों के शहर सम्मिलित है।  वर्ल्ड बैंक अपनी रिपोर्ट बनाते समय सम्बंधित शहर की नगर निगम , राज्य सरकार और केंद्र सरकार को सम्मिलित करता है। यानि उद्योग लगे उत्तर प्रदेश और हरियाणा के शहरो में और आधार बना दिल्ली का नगर निगम। साथ ही दिल्ली चूँकि केंद्र शासित प्रदेश और मेट्रो शहर है इसलिए यँहा चीज़ो की अनुमति लेना भारत के बाकि शहरों की तुलना में थोड़ा आसान है। मान लीजिये आप उद्योग के लिए कमर्शियल बिजली का कनेक्शन लेना चाहते है तो बाकि शहरो की तुलना में दिल्ली में यह आपको थोड़ा आसानी से मिल जायेगा। 
हाँ सरकार ने एक काम जरुर किया है वो है ऑनलाइन व्यवस्था। सरकार ने चीज़ो को डिजिटल करके भ्र्ष्टाचार के ह्यूमन इंटरस्ट को  कम जरूर कर दिया मगर आधारभूत ढांचे की बुनियादी समस्या को दूर नहीं किया। ये कुछ वैसा ही है जैसे आपने एक व्यवस्था की समस्या को दूसरी व्यवस्था खड़ी करके खत्म कर दिया। लेकिन आधारभूत ढांचे की बुनियादी समस्या का खत्म होना अभी काफी हद तक बाकि है।  सर्वर और कन्नेक्टविटी की समस्या अभी बाकि है साथ ही डिजिटल व्यवस्था के आने के बाद किसी समस्या के लिए कौन जिम्मेदार होगा यह भी बड़ा सवाल है । 
बहरहाल वर्ल्ड बैंक की इस रिपोर्ट को सारे  भारत की बदलती हुई  तस्वीर न समझा जाये क्यूंकि ये सिर्फ दो शहरों की रिपोर्ट है।  भारत के अन्य शहरों में उद्योग कितनी आसनी से लग सकते है इससे हम सभी अवगत है। सरकार बड़ी आसानी से आंकड़ों और कुछ खास चीज़ो को दिखाकर कैसे अपनी सफलता का रिपोर्ट कार्ड पेश करती है इस खेल को सभी को समझना आना चाहिए। सरकार के इस आंकड़ों के खेल में वर्ल्ड बैंक के लोग भी बेवकूफ बनते है  और बाकि बचे हुए लोग भी और ऐसे ही सरकार आलोचक और  विरोधियो को भी  चौसर पर शह और मात दे देती है। 

Monday, October 30, 2017

प्रतीक राजनीती की खुलती परते

आज का दौर विकास की राजनीती का है। हर नेता के भाषण में 'डवलपमेंट' है। धर्म और जाति भाषणों में खिसक कर दूसरे पायदान पर पहुँच चुके है। इस विकास की राजनीती के मुखिया नरेंद्र मोदी है। 2014  लोकसभा चुनावों को जब नरेंद्र मोदी ने ,विकास के इर्द-गिर्द बुना और भाषणों में गुजरात मॉडल का जिक्र किया , तो जनता ने भी उन पर भरोसा जाहिर कर दिया।  लेकिन शायद जनता ने , उनके गुजरात मॉडल को , टटलोने की जद्दोजेहद उस समय नहीं करी।गुजरात विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही , वँहा की जनता अब नरेंद्र मोदी और भाजपा के विकास के उन दावों को खंगाल रही है , जिसको डंके की चोट पर मोदी देश और विदेश में घूम - घूम कर बताते है। कांग्रेस पार्टी गुजरात चुनाव के  अपने कैंपेंन के लिए, सोशल मीडिया पर एक गाना चलाती है 'विकास पागल हो गया है'  जो लोगो के बीच में अचानक से लोकप्रिय हो जाता है। तीन युवा , हार्दिक पटेल ,अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी लाखों की संख्या की भीड़ जुटा कर , सीधा गुजरात मॉडल के कर्ता- धर्ता को टक्कर देने का साहस दिखाने लगते है। जिस राहुल गाँधी को जनता ने , राजनैतिक अपरिपक्व मानकर , हाशिये पर डाल दिया , अचानक से गुजरात की जनता में , उन्हे सुनने की डिमांड बढ़ने लगती है। चुनाव आयोग ,प्रधानमंत्री की चुनावी घोषणाओं के चलते ,गुजरात चुनावों की घोषणा देरी से करता है। शंकर सिंह वागेला पर , सीबीआई की रेड़ डलवाकर , उन्हें चुनावी रण से बाहर कर दिया जाता है। आईबी हर पल , मोदी  के विरोधियों की गतविधियों पर नजर रखती है। चुनावी दौर में खुल्मखुला , ख़रीद - फ़रोख़्त की जाती है। जिन अमित शाह को , भाजपा का चुनावी चाणक्य कहा जाता है , उन्ही शाह को मोदी ,गुजरात के रण में मुख्य भूमिका देने से बचते है ,क्योकि प्रधानमंत्री कोई रिस्क नहीं लेना चाहते। अरुण जेटली को गुजरात का प्रभारी जरूर बना दिया गया , पर  वो व्यस्त हिमाचल में दिखाई देते है। गुजरात में प्रधानमंत्री के दौरों की बाढ़ आ जाती है। प्रधानमंत्री देश में कंही भी जाये ,उनके भाषणों में कांग्रेस निशाने पर है। अचानक से इतना सब कुछ बदला-बदला क्यों ? क्या नरेंद्र मोदी और भाजपा , जिन्होंने 22 वर्ष गुजरात पर शासन किया , आज अचानक से उनके विकास के दावे दम तोड़ रहे है ? गुजरात जैसा राज्य , जो कि कमर्शियल स्टेट है ,वंहा की प्रगति को नरेंद्र मोदी के शासन की देन का दावा , भाजपा करती है। पटेल , ठाकुर और दलित आंदोलनो के नेताओ में एक बात कॉमन निकल कर आती है , चाहे आरक्षण हो या ना हो ,गुजरात का युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहा है। औद्योगिक  घरानों को दी गयी खुली छूट के चलते , किसान और खेती दोनों हाशिये पर है।  किसान के पास खेती के लिए जमीन नहीं बची और जो बची , उस पर होने वाली खेती से लागत निकाल पाना भी मुश्किल हो रहा है। नोटबंदी और जीएसटी के चलते व्यापार की मंदी के सच को दरकिनार नहीं किया जा सकता। सवाल ये है की गुजरात मॉडल के प्रतीक की हकीकत क्या है ? दरसअल सच्चाई ये है ,गुजरात में आद्यौगिक विकास के लिए जो कुछ भी किया गया , पुरे गुजरात को उसी के ही इर्द गिर्द बुन दिया गया और उसे ही देश के सामने गुजरात मॉडल के रूप में पेश किया गया। ये गुजरात मॉडल एक प्रतीक बन गया जिसकी हकीकत ये है की वो सिर्फ और सिर्फ  एक आदर्श है पूरा गुजरात और गुजरातियों तक इसकी पहुँच नहीं है। आज इस प्रतीक राजनीती के मॉडल गुजरात मॉडल की परते खुलने लगी है। कुछ के विकास को सभी का विकास बता कर और सबका साथ पा लिया गया। लेकिन समय और दौर दोनों तेजी से बदले है आगे देखते है इस प्रतीक राजनीती की और कितनी परते खुलती है।